Maan ka bhanwar By Dilip Singh Charan · Friday, 18 February 2011
अपना लिखा मुझेँ कुछ याद नहीँ रहता
दुसरोँ का लिखा पढकर मैँ खुश रहता
अपनी मनो भावना मैँ निरंतर बहता
बीना पतवार कि कस्ति लिये मै तैरता
मैँ जिधर जा रहा हुँ उधर कोई साहिल नहीँ
जिधर साहिल है उधर मुझे जाना नहीँ
मेरे कदमोँ के निचे न जल थल न अम्बर
फिर भी न जाने मैँ कैसे चल रहा निरंतर
मेरे जज्बोँ का न कोई विषय न कहानी हैँ
कभी आशा कभी निराशा तुकान्त जीवन रवानी हैँ
अपनी भावनाओ मे भावुकता लिये मैँ निरंतर बहता
मेरी कोई व्यथा हैँ ही नहीँ तो मैँ किसी से क्या कहता
दोस्तोँ की महफिलोँ मे मैँ अक्सर खामोश रहता
अपनी भावनाओ के भंवर मेँ उलझा रहता
सदैव मन ही मन मेँ कुछ सुलझाता रहता
कुछ सुलझानेँ मेँ मैँ सदैव उलझता रहता
मेरी कविता का विषय कहीँ गुल हो गया
मैँ कलम कागज पेँ टिकाये सोचता सोचता सो गया
ये कैसी डोर हैँ ? जिसका मिलता नहीँ पर कहीँ तो छोर है ।
मुझे उलझाने वाला वो नटखट माखन चोर हैं । या कोई ओर है?
कवि दिप चारण
दुसरोँ का लिखा पढकर मैँ खुश रहता
अपनी मनो भावना मैँ निरंतर बहता
बीना पतवार कि कस्ति लिये मै तैरता
मैँ जिधर जा रहा हुँ उधर कोई साहिल नहीँ
जिधर साहिल है उधर मुझे जाना नहीँ
मेरे कदमोँ के निचे न जल थल न अम्बर
फिर भी न जाने मैँ कैसे चल रहा निरंतर
मेरे जज्बोँ का न कोई विषय न कहानी हैँ
कभी आशा कभी निराशा तुकान्त जीवन रवानी हैँ
अपनी भावनाओ मे भावुकता लिये मैँ निरंतर बहता
मेरी कोई व्यथा हैँ ही नहीँ तो मैँ किसी से क्या कहता
दोस्तोँ की महफिलोँ मे मैँ अक्सर खामोश रहता
अपनी भावनाओ के भंवर मेँ उलझा रहता
सदैव मन ही मन मेँ कुछ सुलझाता रहता
कुछ सुलझानेँ मेँ मैँ सदैव उलझता रहता
मेरी कविता का विषय कहीँ गुल हो गया
मैँ कलम कागज पेँ टिकाये सोचता सोचता सो गया
ये कैसी डोर हैँ ? जिसका मिलता नहीँ पर कहीँ तो छोर है ।
मुझे उलझाने वाला वो नटखट माखन चोर हैं । या कोई ओर है?
कवि दिप चारण
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