निगाहें
निगाहें
तेज हवाओं ने चिराग बुझा दिया।
दिल में दबे जज्बातों को जगा दिया ।
आज हम फिर से कलम लेकर
लिखने लगे लबों पे मचलते लफ्जों को ,
किसी कि नशीली निगाहों ने
शराबी सा शायर बना दिया ।
उसकी आँखों के दो जाम
हशीन कर दे हर शाम
जब वो साकी बनकर ,
निगाहों से पिलाये महशर
महकश को औसान नही
कब हो जाये शब से सहर ।
निगाहों से छल छल छलकते पैमाने ।
इन निगाहों के आगे कुछ भी नहीं
दुनिया के सारे महखाने ।
जो तलब तेरी ये निगाहें बुझाये ।
वो खुदा भी मिटा ना पाये
इक तरफ मुझे गले लगाने को
खुदा फैलाऐं अपनी बाहें
इक तरह हो तेरी ये
दरिया- ए -महसर निगाहें
खुदा की कसम हम
तेरी निगाहों मे डुब जायें।।
खुदा की कसम हम तेरी
निगाहों में डुब जाये ।।
हवाऐं थमी चिराग फिर जल उठे ।
नूरे सैलाब आते ही वो हम से रूठे ।।
मेरी तसव्वुर के सारे आइने टुटे ।
ना जाने वो निगाहों के महखाने किसने लुटे ।।
जैसे ही कलम थमी ,
खुदा खङा था फैलाऐं अपनी बाहें।
मैं दौङता खुदा के करीब जाके
भरने लगा आहें ।।
मैं खुदा से लिपटने वाला था कि ,
कम्बख्त इतने में ही आँखें खुल गई ।
••••••••••••••••••••••••••दीप चारण
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