एक डाकू को मार कर जागा वो ।
जेल तिहाङ तोङकर भागा वो ।
आतंकियो के अड्डे से ,अस्तिया पुरखो की ले आया ।
आज शेर सिर्फ वही ,(दिपने ) देखा सिहणी का जाया ।
मै साथ अपने प्राणो के सिवा, कुछ ना लाया हुं ।
इस जंगल मे ऐसे ,नर नाहर को खोजने आया हुं ।
हर एक बाग से ,एक एक फूल चुन चुनकर लाउंगा ।
स्वय सूई ,धागा एकता, पिरोकर एक माळा बनाउंगा ।
यह माळा राश्ट्र हित मे ,धर्म रक्सा मे ,काम आयेगी ।
बुचङखानो को करके बंद, गौ माता को पहनाई जायेगी ।
बिखरे क्यो हो टुटी हुई मोतियो कि माळा की तरह हे ! रजपूत ।
नंनदिनी गौमाता पुकार रही हे! दिलीप के कपूत बन जाओ सपूत ।
बस लिखना भर मेरा काम रहा ।
गौ माता का जो संग्रामरहा ।
मुझे क्हा कुछ पाना है।
केवल आपको जगाना है।
मुझे क्हा कुछ पाना है।
रोज चाय पीता हुं थैली के दूध की सही ,
बस मात्र यही ऋण चुकाना है।
कर रहे है घात।
दुश्मन अनेक अग्यात ।
क्हा सो रही रजपूती जात ।
रो रो कर पूकार रही है गौ मात ।
महलो मे गोरो को चाय कॉफी इसके दूध कि पीलाते हो ।
बोरिया भर भर रूपया कमाते हो ,जब ये पुकार कर रही तो क्हा छूप जाते हो।
मुझे आप सब चाहे न खिलाओघास चारा ।
चाहे गलियो सङको पे फिराओ मारा मारा।
चाहे मुझे खुंटे से बांधकर रखो अपने घर आगंने में ।
पर मुझे कटने से बचालो बुचङखाने(कत्लखाने )में।
कविता बढाउ तो अनंत तक बढती जाये ।
इतनी बहुत हे अगर आंखे तुम्हारी खुल जाये ।
कवि दिप चारण
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