दृग चावै दीदार( दीप चारण कृत)

दृग चावै दीदार( दीप चारण कृत)

 ||दोहा||

त्यार सुराही प्याळियाँ,  लबालब भरि शराब।
आ जा अब परदेशिया, पूरा कर दे ख्वाब ।।

पूर्सूं भर भर प्याळियाँ, सीझ रह्यो कबाब।
आ जा अब परदेशिया, पूरा कर दे ख्वाब ।।

असाढ बिन बरसे गयो, धधकत घणी धराह।
सावण आयो साहिबा , पधारो अब घरांह।।

पावस बण आवो पिया,स्नेह छींटाह छांट।
गिला शिकवा भूल जा, मत राखो ना आंट।।

गड़ड़ हड़ड़ घन गरजता, कड़ड़ कड़कती बीज।
रो - रो काढूं   रातदिन, खामद   मत  ना  खीज।।

जावे तन-मन तोड़ती, बहती ठंडी ब्यार।
सावण आयो साहिबा, दृग चावै दीदार।।

|| कुंडलिया||

नद्य तट घट भरन गई, भींज्यो सगळो बैस।
खांच लियो पंछी रिबन, खूलग्या सारा केस।।

खूलग्या सारा केस, घनघोर छाय कळायण।
पिया बसे परदेश, इण रुत याद आए घण।।

जबर छटपटे जीव, मीन सम करती मटमट।
पधार अब तो पीव, भरन चली नदी तट घट।। [1]


गाबा सगला भींज गा, उघड़ गया सब अंग।
कस्स कांचली टूट गी, तन पर कूर्ती तंग ।।

तन पर कूर्ती तंग,  झुक झुक सब अंग झांके।
फैला पंछी पंख,  मुवा म्नॉ उड़ उड़  तांके।।

चमकै बैरण बीज, आयो सिर उपर आभो।
भली गई हूं भींज, सूखाउं किकर गाभो ।। [2] 


चूं चां पंछी चहुँकता, घणी चलावे चोंच।
घट भरंतां गई लचक, कटि में आई मोच।।

कटि में आई मोच, मूव बाम कुण लगावै।
केस सांतरा पोंछ, उलझया कुण सुलझावै।।

पिया न भेजी पाति, सखी संग कांई बांचां।
सदा कोयल सताति, पिऊ पिऊ खोल चांचां।।[3]

°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°दीप चारण









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