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बरसात अर अनावड़ो

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 बरसालो अर अनावङो आंधी आय अड़ड़ अड़ड़ ,घररर घन गरजीय । पला पल पलकै बीजली , घोर  मेघ  बरसीय  ।। कड़कत खैण कड़ड़ कड़ड़ , पड़ड़ड़ पड़े पनाल । पीय  परदेस  रंजियो , सेजां  धण  बेहाल ।। असाढ अंबर गरजियो ,घम घम मेघ घुरंत।  तेग वेग चपला चमक , धण ऐकली डरंत ।। काळ भइ रैण कालकी , घरां ऐकल डरंत। बाट जोउ आय बारनै  , बेगौ   आये   कंत ।। होय घणी हिड़की तड़ित , खीण खीण मुइ खाय । परदेस जा बसे पिया , जल झड़  तन  झुलसाय ।।   चपला  देखे  चापली ,  सजनी  रजनी  माय । प्राणहीन तन लाधसी  ,नाह जे तु नह आय ।। ••••••••••••••••••••••••••दीप चारण

संस्मरण :- गांव की सुबह

संस्मरण :- गांव की सुबह मैं बचपन से ही शहर में रहता हूं। बचपन में ग्रीष्मकालीन अवकाश के दिनों में गांव चला जाता था। मेरा गांव बैह चारणान जोधपुर से करीब 65-70 कि. मी दूर ओसिया तहसील में स्थित हैं। जो चारों तरफ रेतीले धोरों और पडाड़ से घिरा हैं खेतासर गांव पार करके गांव की सीमा में प्रवेश करते समय सड़क मार्ग रातड़ी भाखर हैं इसकी सीध में बरोबर आने पर गांव दिखाई देने लगता हैं गांव के पीपल वृक्ष घर आदि दिखने लगतें हैं। अंधाधुंध खनन से रातड़ी भाकर प्राय लुप्त सा होने लगा हैं। भाखर से सटा लंबा और ऊंचा विशाल टीला दूर बैह नाडी से आगे  बहुत दूर तक जाता हैं अर्द्ध चंद्राकार आकार बनाता हुआ, इन्हीं धोरों के पीछे संध्या काल में सूर्य अस्त होता हैं। उस  वैला में लाली युक्त नजारा अत्यधिक मनमोहक होता हैं। इन्हीं धोरों के पीछे शायद चिराई गांव का एक टावर दिखाई देता हैं। सड़क के रास्ते गांव के भीतर की तरफ प्रवेश करने पर करणी माता का मंदिर और ओरण भूमि प्रारम्भ हो जाती हैं। मंदिर परिसर और ओरण में मनीष जी माड़साब और करणी युथ क्लब की कठिन मेहनत से वृक्षारोपण व उनकी देखरेख से गांव का प्राकृतिक सौन...

संस्मरण :- तीन तिगाड़ा काम बिगाड़ा

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भूली बिसरी यादें                  संस्मरण              शीषर्क :- तीन तिगाड़ा काम बिगाड़ा              लेखक :- दिलीपसिंह (दीप चारण) बात 90 के दशक की हैं, उन दिनों टेलिविज़न किसी किसी के घर पर ही हुआ करता था। ब्लेक एंड वाईट स्क्रीन के टीवी होते थे अमुमम, कलर टीवी तो कुछेक अमीर वर्गीय तबके के घरों में होते थे। मध्यम वर्गीय टेलिविज़न युक्त घरों में तो सिर्फ दुरदर्शन चैनल ही एकमात्र विकल्प होता था।  मैं उन दिनों पांचवी  कक्षा का छात्र था बचपन में इतवार का दिन तो पड़ोस के सहपाठियों के घर पर ही बीतता था। रंगोली नामक गीतों का प्रोगाम तो चूक ही जाता था। 9 बजे से पहले चाय नास्ता करने के बाद मैं एक बाल मित्र के घर चला जाता था। 9 बजे श्री कृष्णा, केप्टन व्योम, शक्तिमान इत्यादि धारावाहिक देखकर एक डेढ बजे घर आता, नहाना खाना आदि अत्यावश्यक काज निपटाने के बाद करीब चार बजे पुनः बाल मित्र के घर दूरदर्शन पर प्रसारित होने वाली साप्ताहिक हिंदी फिचर फिल्म देखने के बाद स्व गृहप्रव...

हमारा बचपन हमारे खेल

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शीर्षक :- हमारा बचपन हमारे खेल लेखक :- दिलीपसिंह (दीप चारण) मनुष्य जीवन  मनोविज्ञान के अनुसार कई अवस्थाओं से गुजरता हैं। परन्तु सामान्यतः हम चार अवस्थाऐं मानते हैं। 1.बचपन 2. किशोरावस्था 3.युवावस्था 4. प्रौढावस्था बचपन का दौर हर किसी के लिए जीवन का स्वर्णीम दौर होता हैं, इसके बीत जाने के बाद कोई भी उस दौर को नहीं भूलता। मौज-मस्ती और आनंद से भरपूर कोई चाह कर भी उसमें नहीं लौट सकता। गजलों में भी गाया गया हैं कि "ये दौलत भी ले लो, ये शौहरत भी ले लो, मगर मुझको लौटा दो। वो बचपन का सावन, वो कागज की कस्ती, वो बारिश का पानी। .......... हालांकि हमारे पास टीवी विडियो गेम, हेंड विडियो गेम, इलेक्ट्रॉनिक खिलोने नहीं हुआ करते थे। फिर भी हमारा बचपन कुछ अभावों के बावजूद भी भावों से तरबतर था। हमारे पास तो कई छुपाये हुवै खजाने होते थे जिनमें, खाली अनुपयोगी माचीस की छापें, कंचे, फिल्मी फोटू, गत्ते के लूढो सांप सीढी, व्यापार, खराब रेडियो के चुंबक, पत्थर के गडडे, इत्यादि। इसके अलावा कैई इंडोर आऊटडोर खेल हम खेलते थे। गांवों में ग्रीष्मकालीन अवकाश के दिनों में भरी दोपहरी पीपल के चोत...