संस्मरण :- तीन तिगाड़ा काम बिगाड़ा
भूली बिसरी यादें
संस्मरण
शीषर्क :- तीन तिगाड़ा काम बिगाड़ा
लेखक :- दिलीपसिंह (दीप चारण)
बात 90 के दशक की हैं, उन दिनों टेलिविज़न किसी किसी के घर पर ही हुआ करता था। ब्लेक एंड वाईट स्क्रीन के टीवी होते थे अमुमम, कलर टीवी तो कुछेक अमीर वर्गीय तबके के घरों में होते थे। मध्यम वर्गीय टेलिविज़न युक्त घरों में तो सिर्फ दुरदर्शन चैनल ही एकमात्र विकल्प होता था।
मैं उन दिनों पांचवी कक्षा का छात्र था बचपन में इतवार का दिन तो पड़ोस के सहपाठियों के घर पर ही बीतता था। रंगोली नामक गीतों का प्रोगाम तो चूक ही जाता था। 9 बजे से पहले चाय नास्ता करने के बाद मैं एक बाल मित्र के घर चला जाता था। 9 बजे श्री कृष्णा, केप्टन व्योम, शक्तिमान इत्यादि धारावाहिक देखकर एक डेढ बजे घर आता, नहाना खाना आदि अत्यावश्यक काज निपटाने के बाद करीब चार बजे पुनः बाल मित्र के घर दूरदर्शन पर प्रसारित होने वाली साप्ताहिक हिंदी फिचर फिल्म देखने के बाद स्व गृहप्रवेश होता। कुछ डांट डपट से स्वागत होने के बाद पुस्तक काॅपी लिए, नजर घड़ी पर टकटकी लगाते लगाते रात्रि भोजन पकने का इंतजार..... फिर रात्रिभोज के बाद गूदड़ प्रवेश हो जाता।
सप्ताह के अन्य दिनों सुबह चाय नास्ते से निवृत्त होते होते पिताजी के दफ्तर जाने के बाद हम भी गृह से विच्छेद हो जाते 11 बजे खेलकर घर आते। और तैयार होकर 12 बजे विद्यालय गमन।
5:30 बजे विद्यालय से पुनः घर लौट आते।
उन दिनों शाम को 6 बजे जी टीवी नामक चैनल पर डीजनी होर नामक कार्टून आते थे। मैं और मेरा बाल सखा दोनों उसको देखने के दिवाने थे। परन्तु उसके घर केबल कनेक्शन नहीं था।
तो कैसे देखा जाए इसी दूविधा से मैं और मेरा बालसखा अशोक सोच रहे थे कि क्या जुगाड़ करे उसने कैई तांबे के तार से गैजेट बनाकर जुगाड़ करने के प्रयास किये। डीस चैनल स्पष्ट कैच नहीं हुवै।
एक दिन मैं एक पडौस की एक बड़ी सी कोठी के पीछे गुजरा तो देखा खिड़की खुली थी, और उसी कक्ष में टेलिविज़न चल रहा था उस कोठी वालों के बच्चे डीजनी होर देख रहे थे। ऐसा प्रतीत होता था उस कोठी में रहने वाले बच्चे भी डीजनी होर के शौकीन थे....
उस खिड़की से कुछ दूरी पर भवन निर्माण में काम आने वाले लोहे के बड़े बड़े घोड़े लकड़ी के बड़े बड़े पाट रखे थे।
मैने यह सारी बात अशोक को बताई उसने कहा कि हम दोनों चूपचाप इन पाटों पर बैठकर खिड़की से डिज्नी होर देखेंगे।
हम दोनों कैई दिनों तक वो प्रोग्राम देखने का लुत्फ उठाते रहे।........
अशोक अक्सर टोम एंड जेरी, डक टेल्स, टेल्सपिन, गुफी, अलादीन आदि कार्टून देखकर उसकी कहानियाँ अपने चचेरे भाई को सुनाता था। वो भी कुचमादी था उसको लगता की केबल कनेक्शन तो इनके घर हैं नहीं आखिरकार ये कैसे देखते हैं?
हम दोनों की भी आपसी शर्त थी की हम डिज्नी होर कहा? कैसे? देखते हैं इस बारे में किसी को बताना नहीं हैं।
अशोक के कुचमादी चचेरे भाई ने हमारा पीछा किया कि ये शाम को जाते कहां हैं.... एक दिन उसने पता लगा ही लिया।
और वो अशोक के पीछे खड़ा होकर देखने लगा। हमने भी उसे चूपचाप देखने को कहा पर वो कार्टून के हास्यप्रद दृश्य को देखकर जोर जोर से हसने लगा। इतने में उसके ठहाकों के शौर से उस कोठी के निवासी बच्चों को सारा माजरा समझ में आ गया और उस दिन के बाद वो खिड़की बंद रहने लगी। और उस तीसरे कुचमादी के आने से हमारा जुगाड़ फ्लाप हो गया।
तभी अशोक बोला! "तीन तिगाड़ा काम बिगाड़ा।"।
°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°दीप चारण
संस्मरण
शीषर्क :- तीन तिगाड़ा काम बिगाड़ा
लेखक :- दिलीपसिंह (दीप चारण)
बात 90 के दशक की हैं, उन दिनों टेलिविज़न किसी किसी के घर पर ही हुआ करता था। ब्लेक एंड वाईट स्क्रीन के टीवी होते थे अमुमम, कलर टीवी तो कुछेक अमीर वर्गीय तबके के घरों में होते थे। मध्यम वर्गीय टेलिविज़न युक्त घरों में तो सिर्फ दुरदर्शन चैनल ही एकमात्र विकल्प होता था।
मैं उन दिनों पांचवी कक्षा का छात्र था बचपन में इतवार का दिन तो पड़ोस के सहपाठियों के घर पर ही बीतता था। रंगोली नामक गीतों का प्रोगाम तो चूक ही जाता था। 9 बजे से पहले चाय नास्ता करने के बाद मैं एक बाल मित्र के घर चला जाता था। 9 बजे श्री कृष्णा, केप्टन व्योम, शक्तिमान इत्यादि धारावाहिक देखकर एक डेढ बजे घर आता, नहाना खाना आदि अत्यावश्यक काज निपटाने के बाद करीब चार बजे पुनः बाल मित्र के घर दूरदर्शन पर प्रसारित होने वाली साप्ताहिक हिंदी फिचर फिल्म देखने के बाद स्व गृहप्रवेश होता। कुछ डांट डपट से स्वागत होने के बाद पुस्तक काॅपी लिए, नजर घड़ी पर टकटकी लगाते लगाते रात्रि भोजन पकने का इंतजार..... फिर रात्रिभोज के बाद गूदड़ प्रवेश हो जाता।
सप्ताह के अन्य दिनों सुबह चाय नास्ते से निवृत्त होते होते पिताजी के दफ्तर जाने के बाद हम भी गृह से विच्छेद हो जाते 11 बजे खेलकर घर आते। और तैयार होकर 12 बजे विद्यालय गमन।
5:30 बजे विद्यालय से पुनः घर लौट आते।
उन दिनों शाम को 6 बजे जी टीवी नामक चैनल पर डीजनी होर नामक कार्टून आते थे। मैं और मेरा बाल सखा दोनों उसको देखने के दिवाने थे। परन्तु उसके घर केबल कनेक्शन नहीं था।
तो कैसे देखा जाए इसी दूविधा से मैं और मेरा बालसखा अशोक सोच रहे थे कि क्या जुगाड़ करे उसने कैई तांबे के तार से गैजेट बनाकर जुगाड़ करने के प्रयास किये। डीस चैनल स्पष्ट कैच नहीं हुवै।
एक दिन मैं एक पडौस की एक बड़ी सी कोठी के पीछे गुजरा तो देखा खिड़की खुली थी, और उसी कक्ष में टेलिविज़न चल रहा था उस कोठी वालों के बच्चे डीजनी होर देख रहे थे। ऐसा प्रतीत होता था उस कोठी में रहने वाले बच्चे भी डीजनी होर के शौकीन थे....
उस खिड़की से कुछ दूरी पर भवन निर्माण में काम आने वाले लोहे के बड़े बड़े घोड़े लकड़ी के बड़े बड़े पाट रखे थे।
मैने यह सारी बात अशोक को बताई उसने कहा कि हम दोनों चूपचाप इन पाटों पर बैठकर खिड़की से डिज्नी होर देखेंगे।
हम दोनों कैई दिनों तक वो प्रोग्राम देखने का लुत्फ उठाते रहे।........
अशोक अक्सर टोम एंड जेरी, डक टेल्स, टेल्सपिन, गुफी, अलादीन आदि कार्टून देखकर उसकी कहानियाँ अपने चचेरे भाई को सुनाता था। वो भी कुचमादी था उसको लगता की केबल कनेक्शन तो इनके घर हैं नहीं आखिरकार ये कैसे देखते हैं?
हम दोनों की भी आपसी शर्त थी की हम डिज्नी होर कहा? कैसे? देखते हैं इस बारे में किसी को बताना नहीं हैं।
अशोक के कुचमादी चचेरे भाई ने हमारा पीछा किया कि ये शाम को जाते कहां हैं.... एक दिन उसने पता लगा ही लिया।
और वो अशोक के पीछे खड़ा होकर देखने लगा। हमने भी उसे चूपचाप देखने को कहा पर वो कार्टून के हास्यप्रद दृश्य को देखकर जोर जोर से हसने लगा। इतने में उसके ठहाकों के शौर से उस कोठी के निवासी बच्चों को सारा माजरा समझ में आ गया और उस दिन के बाद वो खिड़की बंद रहने लगी। और उस तीसरे कुचमादी के आने से हमारा जुगाड़ फ्लाप हो गया।
तभी अशोक बोला! "तीन तिगाड़ा काम बिगाड़ा।"।
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