हमारा बचपन हमारे खेल

शीर्षक :- हमारा बचपन हमारे खेल
लेखक :- दिलीपसिंह (दीप चारण)

मनुष्य जीवन  मनोविज्ञान के अनुसार कई अवस्थाओं से गुजरता हैं। परन्तु सामान्यतः हम चार अवस्थाऐं मानते हैं। 1.बचपन
2. किशोरावस्था
3.युवावस्था
4. प्रौढावस्था

बचपन का दौर हर किसी के लिए जीवन का स्वर्णीम दौर होता हैं, इसके बीत जाने के बाद कोई भी उस दौर को नहीं भूलता। मौज-मस्ती और आनंद से भरपूर कोई चाह कर भी उसमें नहीं लौट सकता।
गजलों में भी गाया गया हैं कि
"ये दौलत भी ले लो,
ये शौहरत भी ले लो,
मगर मुझको लौटा दो।
वो बचपन का सावन,
वो कागज की कस्ती,
वो बारिश का पानी।
..........

हालांकि हमारे पास टीवी विडियो गेम, हेंड विडियो गेम, इलेक्ट्रॉनिक खिलोने नहीं हुआ करते थे। फिर भी हमारा बचपन कुछ अभावों के बावजूद भी भावों से तरबतर था। हमारे पास तो कई छुपाये हुवै खजाने होते थे जिनमें, खाली अनुपयोगी माचीस की छापें, कंचे, फिल्मी फोटू, गत्ते के लूढो सांप सीढी, व्यापार, खराब रेडियो के चुंबक, पत्थर के गडडे, इत्यादि।
इसके अलावा कैई इंडोर आऊटडोर खेल हम खेलते थे।
गांवों में ग्रीष्मकालीन अवकाश के दिनों में भरी दोपहरी पीपल के चोतरे पर  या कोटड़ियों में तीग्गो, अष्टाचक्र, चर - भर, नार - बकरी, चौपड़, आंधल घैटो आदि इंडोर खेल खेलते थे। जुरना लकड़ी
, घोड़ा कबड्डी, पाला कबड्डी, झेर खाड़ू, छींया छंकोलियो, चीलम चीलो, सतोलियो, चौर गुची, गीली डंडा माल दड़ी, दोटा दड़ी, बर्फ पानी, चौर पुलिस, पकडम पकडाई, लंगड़ी टांग, खो - खो आउटडोर खेल भी खेलते थे।

भरी दोपहरी में पीपल पर नीम पर चढकर खेलते खेलते कई पहेलियां प्रश्नोतरी वाले खेल भी चलते थे।

लोहे की तार से टेक्टर नुमा चकरा, घी के खाली लोहे के डिब्बे सें ट्रोली, और पुरानी फटी चपल के पहिये या तार से पहिऐ बनाकर चकरे, साईकिल के अनुपयोगी पुराने टायर जैसे खिलोने बना लेते थे।

शहरों में शतरंज, कैरम बोर्ड,  टेनिस, बाॅलिबाॅल, बास्केटबॉल, फुटबाल, क्रीकेट आदि खेल खेले जाते थे।

बारिश के दिनों के कागज की नाव बनाकर बच्चे पानी में खेलते थे।बारिश के बाद मिट्टी के घरोंदे बनाकर खेलते । गलियों में कांच के कंचों से तरह तरह के खेल खेलना परन्तु आजकल के बच्चों का मिट्टी में खेलना इन्फेक्शन के खतरे से भरा हैं। मिट्टी भी खेलने के लिए कहां हैं शहरों की गलियों में तो अब सीमेंट की पक्की सड़के बन चूकी हैं।

इस तरह हमारा बचपन खेलों से भरपुर भरा था।
आजकल के बच्चों का बचपन टी वी के खेलों में मोबाइल गैम कैंडी क्रैस, पबजी, टीक टोक इत्यादि में उलझ गया हैं।

काॅमिक्स और उसके वाचन का दौर गया उपन्यास लेखन और उसके वाचन का दौर भी सोशल मिडिया के आगमन के बाद जाता नजर आ रहा हैं।

80 व 90 के दशक के समय जिला भी कस्बे की तरह ही होता था, मध्यम वर्गीय परिवार में साधन के तौर पर एक साईकिल होती थी, तो कोई किराय की साईकिल से ही काम चलाता था। किसी किसी के पास ही स्कूटर (बजाज) या मोटरसाइकिल  होती थी, जीप, या कार तो बहुत ही कम।
बस स्टेंड या रेल्वे स्टेशन के पास कुछ रिक्शे, कहीं कहीं रिक्शों की बजाय तांगे कम दूरी के यातायात के साधन रूप में प्रयोग होते थे। इस वजह से ट्रेफिक भीड़ बहुत कम थी। बच्चे गलियों में आराम से खेल सकते थे, इस कारण प्रेरेंट्स भी बेफ्रिक थे।

आबादी कम थी शहरीकरण कम था तो घरों के आसपास खेलने की खूब जगह होती थी जहां बच्चे विभिन्न आउटडोर खेल खेल सकते थे। पतंगबाजी हो या क्रिकेट मौज मस्ती से खेलते थे। परन्तु अब विशाल भवन आदि निर्माण से, वो मैदान लुप्त हो गये। गगन चुंबी इमारतों से आसमान भी पतंगबाजी के लिए कम पड़ गया। वाहनों का आवागमन निरंतर होता रहता जिससे गलियों में बच्चों खेलना खतरे से खाली नहीं रहा। इस वहज से माता-पिता बच्चों को गली में खेलने से रोक रहे हैं। तो बच्चे आउटडोर खेलों की बजाय इनडोर खेल खेलते हैं वो भी बहुत कम क्योंकि मोबाईल गैमिंग, बच्चों के नये विकल्प बन गये। टीवी और मोबाईल ही बच्चों के मैदान बनकर रहने लगे हैं।

इस तरह बढती आबादी, यातायात, वाहनों की भरमार, और विकास ने बच्चों के खेलने की जगह छीन ली हैं। इंसान ने पहले वनस्पति फिर पशुओं और अब बच्चों की खेलने की जगह छीन रहा हैं। आसमान का दृश्य भी उसके लिए अत्यधिक अल्प हो रहा हैं। रात्रि में वह तारों, धूमकेतू, चंद्रमा पर सूत कातती बच्चों को कहानी सुनाती उस बुढिया आदि को भी अपनी छत से नहीं देख पा रहा हैं।

80 व 90 के दशक के बच्चों का बचपन चाहे भलेही खिलोनों व खेल संसाधनों के अभावों से भरा रहा परन्तूं आजकल के बच्चों के बचपन से श्रेष्ट था।

°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°दीप चारण

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